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शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008

जिन्दगी....धूप हो गयी


''जिन्दगी...!
अब तू छांव नहीं रही,
अब तू धूप हो गयी है
मैं भी नहीं बचा सकातुम्हें
छाँव से धूप होने से,
अब इसमे
तपन के अलावा
कुछ भी नहीं,
लगता है
इसी धूप और तपन में
जिन्दगी की सार्थकता है
जीवन का कसाव है
छांव में नहीं...''

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008

अनिश्चित भविष्य

''भावी कल की अनिश्चितताओं
से डरता रहा वर्तमान,
डर था कहीं अनिश्चित भविष्य
कर न रहा हो उस पर संधान, इसी डर से वर्तमान ने
निश्चंत जीवन जीना छोड़ दिया,
और एक दिन किसी अदृश्य व्यथा की मार से
उसने दम तोड़ दिया...''


विवशता


''कितनी विवश है
मेरी परछाई
मेरे साथ रहने को
पर कभी
जब वह
साथ छोड़ देती है मेरा
तब
छोड़ना पड़ता है उसे
अपने अस्तित्व का प्रकाश
क्या उसकी यह विवशता
मेरे साथ रहने की
विवशता से कम है...?''

बुधवार, 27 फ़रवरी 2008

प्रतीक्षा

''कल की
प्रतीक्षा करते-करते
बीत गया जीवन
कितने आज
चले गए व्यर्थ
पर कल
कभी नहीं आया
और कभी
कल आया भी
तो आज बनकर...''

लालिमा

''जब

क्षितिज के आँगन में

छाने लगे

संध्या की लालिमा

तब

एक दीप जला देना तुम

उसकी देहरी पर

ताकि

निशा की अनजानी दुनिया में

विश्राम करने तक

क्षितिज का आँगन

आलोकित रह सके

और

सहेज कर रख सके

उस लालिमा को

सूर्योदय तक...''

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008

अदृशय चोट


''एक अदृश्य चोट
जब लगती है
एक अदृश्य स्थान पर
तब
उस अदृश्य स्थान की
अदृश्यपीड़ा से
घायल होने लगताहै
एक जीता जागता दृश्य
और आ खड़ा होता है यह आहत दृश्य भी
अदृश्य होने के
कगार पर...''

आंसू का भेद


''व्यथित मन
जब रोक नहीं पाते
दुःख के अतिरेक को
तब
आंसू
पार कर जातेहैं
पलकों की सीमाएं,
या कभी
सुख की तीव्रता
होती है
आनंद के
बिल्कुल समीप
तब
वही आंसू
उन्हीं पलकों की
सीमाओं कोपार कर
और
भावनाओं का
भेद भूलकर
उतर आते है
ह्रदय की गहराईओं में...''

सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

सार्थक उद्देश्य


आकाश के विस्तृत आँचल में
लिख देना चाहता हूँ
एक सुंदर सी कविता
जिसे पढ़ सके
दुनिया के सारे
लोग सिर्फ़ एक नजर उठाकर
और पढ़कर भूल जाए
अपने जीवन की सारी नीरसता
सारे बोझ,
खो जाए
ईश्वर की बनाई
इस सुंदर सृष्टी केकण-कण में व्याप्त
आनंद और
सौन्दर्य केअथाह सिंधु में,
और अंतत पा ले
अपने जीवन का
अनमोल मोती रूपी
सार्थक उद्देश्य...