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शुक्रवार, 21 मार्च 2008

अंतर्मन की रोशनी


''एक रोशनी है मेरे पास
मेरे अंतर्मन को
आलोकित करती
हर पल...
हमेशा...,
लेकिन!
यह रोशनी
अभी तक है
संज्ञाविहीन ,
क्योंकि
न तो यह
चाँद-सितारों की रोशनी है
न सूरज की
न तो दीपक की रोशनी है
न ही विद्युत की,
फ़िर
क्या नाम दूँ इसे...
संज्ञाविहीन रोशनी
नहीं!!
इसे तो
'अंतर्मन की रोशनी'
कहना ही
उपयुक्त होगा...''

मंगलवार, 18 मार्च 2008

आधारहीन उड़ान

''जब देखता हूँ
नीलगगन में उड़ते परिंदों को
पंख पसारे
स्वतंत्र
निश्चिंत
अपनी दुनिया में तल्लीन
तब
सोचने लगती है
मेरी भी आकंक्षाये
उन्मुक्त होकर
काश!
मैं भी उड़ पाता
इन परिंदों की तरह
उन्मुक्त
सुंदर नीले नभ में
जीवन की बोझिलताओं से
भारहीन होकर
धरातल की जटिलताओं और
भूल-भुलैया से दूर
पल-पल की समस्याओं के
जकडन को भूल
अपनी कल्पनाओं-सपनों के साथ
पर क्या यह संभव है?
शायद नहीं
आख़िर कब तक उड़ सकता है कोई
आधारहीन होकर
अविराम
नीलगगन के असीम संसार में
इसलिए अब
अपनी आकांक्षाओं और जीवन की
उन्मुक्तताओं को भूल
प्रयास करने होंगे
धरातल पर ही पांव जमाकर
अपनी आकाक्षाओं और
जीवन को
आधारयुक्त उन्मुक्तताओं के
नवीन आकाश देने के...''


मंगलवार, 11 मार्च 2008

"रोशनी का सफर"

कल भी था ये सफर
आज भी है ये सफर
और
कल भी रहेगा ये सफर
क्योंकि
ये सफर है...
"रोशनी का सफर"




शुक्रवार, 7 मार्च 2008

डर

''मेरा जीवन
एक शांत नदी
मैं नहीं चाहता हूँ इसमें
कोई भी
परिवर्तन की लहरें उठाना
क्योंकि
मैं डरता हूँ
कहीं परिवर्तन की लहर से
मेरा जीवन
अशांत न हो जाए
पर
जब देखता हूँ
अपने तट पर स्थित
अडिग
बडे-बडे चट्टानों को
तब भी मैं डरता हूँ
इस बात से
की कहीं परिवर्तन के अभाव में
मेरा भी जीवन
इनकी तरह ही
ठहर कर न रह जाए,
नीरसता के बोझ से
बोझिल हो
जड़ बनकर न रह जाए
इसलिए अब
कोशिश कर रहा हूँ
इस जीवन- सरिता मे
अपनी सीमाओं के भीतर ही
परिवर्तन की
छोटी-छोटी लहरें उठाना
ताकि यह लहरें
अपनी सीमाओं को पार कर
नहीं जा सके
अन्यत्र
क्योकि
सीमाओं के पार ही
प्रारम्भ होती है
अशांत जीवन की
कभी न खत्म होने वाली
अनिश्चितता भरी
एक लम्बी यात्रा
और मैं डरता हूँ
इसी अशांत जीवन से...''

गुरुवार, 6 मार्च 2008

''प्रेम''-एक शाश्वत अहसास

''जब पहली बार
किसी अनछुई कली पर
गिरी होगी
ओस की पहली बूँद
तब
उस बंद कली के ह्रदय में
आविर्भाव हुआ होगा
'प्रेम' का
और उस नवप्रेम ने
चुपके से
कली का आवरण खोल
सर्वत्र बिखेर दिया होगा
अपना अदृश्य-अलौकिक सुवास
जो आज भी
अविराम
महक-महक कर
बोध करा रही है
और कराती रहेगी
प्रेम की
पवित्रता व शाश्वतता का,
अदृश्य इसलिए
ताकि कोई
उसकी पवित्रता को
भंग न कर सके
और केवल महसूस कर सके
अपनी आत्मा की गहराईओं में
युगों-युगों तक...''



अनिश्चित भविष्य

''भावी कल की
अनिश्चितताओं से
डरता रहा वर्तमान,
डर था कहीं
अनिश्चित भविष्य
कर न रहा हो उस पर संधान,
इसी डर से
वर्तमान ने
निश्चिंत जीवन जीना
छोड़दिया,
और एक दिन
किसी अदृश्य व्यथा की
मार से उसने
दम तोड़ दिया...''

बुधवार, 5 मार्च 2008

अनुपम कविता हो तुम

''मुझमें ऐसा सामर्थ्य कहाँ

जो तुम्हें बाँध सकूं

अपनी कविताओं मे पीरोकर

सीमित शब्दों के द्वारा,

समेट सकूं तुम्हें

अपनी गीतों के

सीमा में गूंजते

सुर-लय-ताल के द्वारा,

क्योंकि

तुम तो स्वयं

वह अनुपम कविता हो

वह अद्वितीय गीत हो

वह अलौकिक सुर-लय-ताल हो

जिसके शब्द असीमित हैं

और जिसकी मधुर गूँज

गूंजती रहती है

अनादि-अनंत

ब्रम्हांड के

कण-कण में

प्रतिपल...''

मंगलवार, 4 मार्च 2008

अभाव

पलकों के दायरे में कैद
मेरे आंसू छटपटाते हैं
इन बन्धनों से मुक्त होकर
ह्रदय के उन्नत धरातल में
स्वछन्द विचरने के लिए
पर क्या करें....?
नहीं रही अब्
ह्रदय में वह सरसता,
भावनाओं ओर
संवेदनाओं का
वह तीव्र उफान,
सुख और दुःख का
वह अतिरेक
जो पलकों के
इन आंसुओं को
अपने धरातल तक
ले आए...''

सोमवार, 3 मार्च 2008

निशान


'' हे प्रिये !
आओ
कुछ अमिट निशान बनाये हम
इन अनजानी
रेशमी
यादगार राहों पर
ताकि
जब भी हम
यह लम्बी यात्रा पूरी करेंगें
लौट चलेंगे
अपनी आशियाने की ओर
तब यही निशान
मुस्कुराकर
हमें इन राहों की
पहचान करा सके
और हम
बिना भटकाव के
इस मुस्कान के संकेत को
अपने ह्रदय में
सहेजकर
पहुंच सकेंगे
अपनी चिर-परिचित
दुनिया में...''

रविवार, 2 मार्च 2008

करूणाविहीन प्रेम

मैं प्रेम करता हूँ
एक पुष्प से
इतना प्रेम कि
मुझे डर लगता है
कहीं वह
मुरझा न जाए
सूरज की प्रखर किरणों से,
कहीं
बिखर न जाए पंखुडिया
हवा के तेज झोंकों से
चर न जाए
कोई जानवर
या फिर
उखाड़ न ले
पड़ोसी का बच्चा,
इसलिए मैनें
बंद कर दिया
उस पुष्प के पौधे को
मजबूत तिजोरी में ,
लेकिन!
अब यह पौधा
मर जाएगा
नहीं बचा सकेगा इसे
मेरा प्रेम
क्योकि
मेरा प्रेम तो
पूरा था
पर करूणा
अंशमात्र भी न थी...''

नवीन सौगातें


तुम मत रोको
अपनी आंसुओं के
उफान को,
फूट जाने दो
अपने ह्रदय पर बने
भाउकता के बाँध को ,
ताकि उस बाढ में
बह जाए
मेरा सर्वस्व
और यदि
कुछ शेष बचे
तो बस
मेरी भी भावनाओं के
अवशेष
जो मेरे जीवन के
सच्चे साथी बनकर
देती रहे मुझे
प्रेम और करुणा की
नवीन सौगातें...