"तुम्हारे आँगन में
रोज आती हूँ मैं
....कभी प्रातः की स्वर्णिम धूप बनकर
....कभी बारिश की मुस्कुराती बूंदे बनकर
....कभी अदृश्य बयार में समाई
मधुर सुवास बनकर
....कभी रमणीय निशा में
चाँद की चांदनी बनकर
....और भी
न जाने कितने रूपों में
रहती हूँ तुम्हारे आस-पास
हमेशा....
....कितने करीब हूँ मैं तुम्हारे
....लेकिन....!
तुम्हारी नजरें
जाने क्या-क्या ढूंढती रहती है
दिन-रात
मुझे नजर अंदाज करके
....शायद....
तुम नहीं जानते
....मैं कौन हूँ...?
"मैं खुशी हूँ "
तुम्हारे अंतरमन की खुशी....."
10 टिप्पणियां:
तुम्हारे अंतरमन की खुशी,
वाह, सुन्दर कविता ।
बर्ड वेरीफिकेशन तो शायद आप हटाना नहीं चाहते हमें आपको टिप्पणी देने के लिए अंग्रेजी भाषा फिर से सक्षम करना होगा ।
bhut badhiya. jari rhe.
aap apna word verificationhata le taki humko tipani dene me aasani ho.
वाह उमेश जी बहुत ही अच्छी कविता है बधाई हो आपको
bhut sundar khushi hai.
बहुत ख़ूब !
sundar kavita....
likhte rahiye
आपके चिट्ठे पर आकर अच्छा लगा. भावपूर्ण सामग्री है. लिखते रहें!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
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bahut aachi kavita likhi hai ..sach hai khushi to apne antermann me hoti hai ,zindagi ke har chote chote pal me hoti hai pr hum hi badi khushiyon ke peeche bhagate bhagte zindagi ke in khubsurat palo ko dakh nhi pate
बेहद सुंदर ! वाकई खुशी हमारे आसपास ही होती है और हम उसे कहीं और ढूंढते रहते हैं ।
अच्छी कविता
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