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रविवार, 2 मार्च 2008

करूणाविहीन प्रेम

मैं प्रेम करता हूँ
एक पुष्प से
इतना प्रेम कि
मुझे डर लगता है
कहीं वह
मुरझा न जाए
सूरज की प्रखर किरणों से,
कहीं
बिखर न जाए पंखुडिया
हवा के तेज झोंकों से
चर न जाए
कोई जानवर
या फिर
उखाड़ न ले
पड़ोसी का बच्चा,
इसलिए मैनें
बंद कर दिया
उस पुष्प के पौधे को
मजबूत तिजोरी में ,
लेकिन!
अब यह पौधा
मर जाएगा
नहीं बचा सकेगा इसे
मेरा प्रेम
क्योकि
मेरा प्रेम तो
पूरा था
पर करूणा
अंशमात्र भी न थी...''

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