क्षितिज के आँगन में
छाने लगे
संध्या की लालिमा
तब
एक दीप जला देना तुम
उसकी देहरी पर
ताकि
निशा की अनजानी दुनिया में
विश्राम करने तक
क्षितिज का आँगन
आलोकित रह सके
और
सहेज कर रख सके
उस लालिमा को
सूर्योदय तक...''
कल भी था ये सफ़र....आज भी है ये सफ़र....और....कल भी रहेगा ये सफ़र..क्योंकि..ये सफ़र है..............."रोशनी का सफ़र".
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