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बुधवार, 5 मार्च 2008

अनुपम कविता हो तुम

''मुझमें ऐसा सामर्थ्य कहाँ

जो तुम्हें बाँध सकूं

अपनी कविताओं मे पीरोकर

सीमित शब्दों के द्वारा,

समेट सकूं तुम्हें

अपनी गीतों के

सीमा में गूंजते

सुर-लय-ताल के द्वारा,

क्योंकि

तुम तो स्वयं

वह अनुपम कविता हो

वह अद्वितीय गीत हो

वह अलौकिक सुर-लय-ताल हो

जिसके शब्द असीमित हैं

और जिसकी मधुर गूँज

गूंजती रहती है

अनादि-अनंत

ब्रम्हांड के

कण-कण में

प्रतिपल...''

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