''मुझमें ऐसा सामर्थ्य कहाँ
जो तुम्हें बाँध सकूं
अपनी कविताओं मे पीरोकर
सीमित शब्दों के द्वारा,
समेट सकूं तुम्हें
अपनी गीतों के
सीमा में गूंजते
सुर-लय-ताल के द्वारा,
क्योंकि
तुम तो स्वयं
वह अनुपम कविता हो
वह अद्वितीय गीत हो
वह अलौकिक सुर-लय-ताल हो
जिसके शब्द असीमित हैं
और जिसकी मधुर गूँज
गूंजती रहती है
अनादि-अनंत
ब्रम्हांड के
कण-कण में
प्रतिपल...''
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