''जब देखता हूँ
नीलगगन में उड़ते परिंदों को
पंख पसारे
स्वतंत्र
निश्चिंत
अपनी दुनिया में तल्लीन
तब
सोचने लगती है
मेरी भी आकंक्षाये
उन्मुक्त होकर
काश!
मैं भी उड़ पाता
इन परिंदों की तरह
उन्मुक्त
सुंदर नीले नभ में
जीवन की बोझिलताओं से
भारहीन होकर
धरातल की जटिलताओं और
भूल-भुलैया से दूर
पल-पल की समस्याओं के
जकडन को भूल
अपनी कल्पनाओं-सपनों के साथ
पर क्या यह संभव है?
शायद नहीं
आख़िर कब तक उड़ सकता है कोई
आधारहीन होकर
अविराम
नीलगगन के असीम संसार में
इसलिए अब
अपनी आकांक्षाओं और जीवन की
उन्मुक्तताओं को भूल
प्रयास करने होंगे
धरातल पर ही पांव जमाकर
अपनी आकाक्षाओं और
जीवन को
आधारयुक्त उन्मुक्तताओं के
नवीन आकाश देने के...''
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