बुधवार, 31 दिसंबर 2008
रविवार, 21 सितंबर 2008
जिन्दगी.....
जिन्दगी.....
आशा है निराशा है
अनसुलझी अबूझ परिभाषा है.
हंसना है रोना है
क्या सोचा क्या होना है.
हकीकत है कहानी है
जानकर भी अनजानी है.
जीत है हार है
जग का सार उपहार है.
दूरी है अधूरी ही
मजबूरी होकर भी जरूरी है.
शनिवार, 6 सितंबर 2008
रविवार, 13 जुलाई 2008
"मैं खुशी हूँ"
"तुम्हारे आँगन में
रोज आती हूँ मैं
....कभी प्रातः की स्वर्णिम धूप बनकर
....कभी बारिश की मुस्कुराती बूंदे बनकर
....कभी अदृश्य बयार में समाई
मधुर सुवास बनकर
....कभी रमणीय निशा में
चाँद की चांदनी बनकर
....और भी
न जाने कितने रूपों में
रहती हूँ तुम्हारे आस-पास
हमेशा....
....कितने करीब हूँ मैं तुम्हारे
....लेकिन....!
तुम्हारी नजरें
जाने क्या-क्या ढूंढती रहती है
दिन-रात
मुझे नजर अंदाज करके
....शायद....
तुम नहीं जानते
....मैं कौन हूँ...?
"मैं खुशी हूँ "
तुम्हारे अंतरमन की खुशी....."
बुधवार, 25 जून 2008
बुधवार, 18 जून 2008
रविवार, 15 जून 2008
सोमवार, 9 जून 2008
सपनों का सच
कितना मुश्किल होता है
सपनों का सच होना
और उससे भी
कहीं अधिक मुश्किल होता है
सच हुए सपनों को
उसी स्थिति में
बचाए रखना,
ऐसे में
सच होने के पहले ही
सपनों का टूट जाना
अच्छा है
क्योंकि
सपनों के सच होने के पहले
उनके टूट जाने से
उतना दुःख नहीं होता
जितना सपनों के सच होकर
उनके टूट जाने से
होता है.....
शुक्रवार, 21 मार्च 2008
अंतर्मन की रोशनी
''एक रोशनी है मेरे पास
मेरे अंतर्मन को
आलोकित करती
हर पल...
हमेशा...,
लेकिन!
यह रोशनी
अभी तक है
संज्ञाविहीन ,
क्योंकि
न तो यह
चाँद-सितारों की रोशनी है
न सूरज की
न तो दीपक की रोशनी है
न ही विद्युत की,
फ़िर
क्या नाम दूँ इसे...
संज्ञाविहीन रोशनी
नहीं!!
इसे तो
'अंतर्मन की रोशनी'
कहना ही
उपयुक्त होगा...''
मंगलवार, 18 मार्च 2008
आधारहीन उड़ान
नीलगगन में उड़ते परिंदों को
पंख पसारे
स्वतंत्र
निश्चिंत
अपनी दुनिया में तल्लीन
तब
सोचने लगती है
मेरी भी आकंक्षाये
उन्मुक्त होकर
काश!
मैं भी उड़ पाता
इन परिंदों की तरह
उन्मुक्त
सुंदर नीले नभ में
जीवन की बोझिलताओं से
भारहीन होकर
धरातल की जटिलताओं और
भूल-भुलैया से दूर
पल-पल की समस्याओं के
जकडन को भूल
अपनी कल्पनाओं-सपनों के साथ
पर क्या यह संभव है?
शायद नहीं
आख़िर कब तक उड़ सकता है कोई
आधारहीन होकर
अविराम
नीलगगन के असीम संसार में
इसलिए अब
अपनी आकांक्षाओं और जीवन की
उन्मुक्तताओं को भूल
प्रयास करने होंगे
धरातल पर ही पांव जमाकर
अपनी आकाक्षाओं और
जीवन को
आधारयुक्त उन्मुक्तताओं के
नवीन आकाश देने के...''
मंगलवार, 11 मार्च 2008
शुक्रवार, 7 मार्च 2008
डर
एक शांत नदी
मैं नहीं चाहता हूँ इसमें
कोई भी
परिवर्तन की लहरें उठाना
क्योंकि
मैं डरता हूँ
कहीं परिवर्तन की लहर से
मेरा जीवन
अशांत न हो जाए
पर
जब देखता हूँ
अपने तट पर स्थित
अडिग
बडे-बडे चट्टानों को
तब भी मैं डरता हूँ
इस बात से
की कहीं परिवर्तन के अभाव में
मेरा भी जीवन
इनकी तरह ही
ठहर कर न रह जाए,
नीरसता के बोझ से
बोझिल हो
जड़ बनकर न रह जाए
इसलिए अब
कोशिश कर रहा हूँ
इस जीवन- सरिता मे
अपनी सीमाओं के भीतर ही
परिवर्तन की
छोटी-छोटी लहरें उठाना
ताकि यह लहरें
अपनी सीमाओं को पार कर
नहीं जा सके
अन्यत्र
क्योकि
सीमाओं के पार ही
प्रारम्भ होती है
अशांत जीवन की
कभी न खत्म होने वाली
अनिश्चितता भरी
एक लम्बी यात्रा
और मैं डरता हूँ
इसी अशांत जीवन से...''
गुरुवार, 6 मार्च 2008
''प्रेम''-एक शाश्वत अहसास

किसी अनछुई कली पर
गिरी होगी
ओस की पहली बूँद
तब
उस बंद कली के ह्रदय में
आविर्भाव हुआ होगा
'प्रेम' का
और उस नवप्रेम ने
चुपके से
कली का आवरण खोल
सर्वत्र बिखेर दिया होगा
अपना अदृश्य-अलौकिक सुवास
जो आज भी
अविराम
महक-महक कर
बोध करा रही है
और कराती रहेगी
प्रेम की
पवित्रता व शाश्वतता का,
अदृश्य इसलिए
ताकि कोई
उसकी पवित्रता को
भंग न कर सके
और केवल महसूस कर सके
अपनी आत्मा की गहराईओं में
युगों-युगों तक...''
अनिश्चित भविष्य
बुधवार, 5 मार्च 2008
अनुपम कविता हो तुम
''मुझमें ऐसा सामर्थ्य कहाँ
जो तुम्हें बाँध सकूं
अपनी कविताओं मे पीरोकर
सीमित शब्दों के द्वारा,
समेट सकूं तुम्हें
अपनी गीतों के
सीमा में गूंजते
सुर-लय-ताल के द्वारा,
क्योंकि
तुम तो स्वयं
वह अनुपम कविता हो
वह अद्वितीय गीत हो
वह अलौकिक सुर-लय-ताल हो
जिसके शब्द असीमित हैं
और जिसकी मधुर गूँज
गूंजती रहती है
अनादि-अनंत
ब्रम्हांड के
कण-कण में
प्रतिपल...''
मंगलवार, 4 मार्च 2008
अभाव
सोमवार, 3 मार्च 2008
निशान
रविवार, 2 मार्च 2008
करूणाविहीन प्रेम
एक पुष्प से
इतना प्रेम कि
मुझे डर लगता है
कहीं वह
मुरझा न जाए
सूरज की प्रखर किरणों से,
कहीं
बिखर न जाए पंखुडिया
हवा के तेज झोंकों से
चर न जाए
कोई जानवर
या फिर
उखाड़ न ले
पड़ोसी का बच्चा,
इसलिए मैनें
बंद कर दिया
उस पुष्प के पौधे को
मजबूत तिजोरी में ,
लेकिन!
अब यह पौधा
मर जाएगा
नहीं बचा सकेगा इसे
मेरा प्रेम
क्योकि
मेरा प्रेम तो
पूरा था
पर करूणा
अंशमात्र भी न थी...''

नवीन सौगातें
तुम मत रोको
अपनी आंसुओं के
उफान को,
फूट जाने दो
अपने ह्रदय पर बने
भाउकता के बाँध को ,
ताकि उस बाढ में
बह जाए
मेरा सर्वस्व
और यदि
कुछ शेष बचे
तो बस
मेरी भी भावनाओं के
अवशेष
जो मेरे जीवन के
सच्चे साथी बनकर
देती रहे मुझे
प्रेम और करुणा की
नवीन सौगातें...
शुक्रवार, 29 फ़रवरी 2008
जिन्दगी....धूप हो गयी
''जिन्दगी...!
अब तू छांव नहीं रही,
अब तू धूप हो गयी है
मैं भी नहीं बचा सकातुम्हें
छाँव से धूप होने से,
अब इसमे
तपन के अलावा
कुछ भी नहीं,
लगता है
इसी धूप और तपन में
जिन्दगी की सार्थकता है
जीवन का कसाव है
छांव में नहीं...''
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2008
अनिश्चित भविष्य
से डरता रहा वर्तमान,
डर था कहीं अनिश्चित भविष्य
कर न रहा हो उस पर संधान, इसी डर से वर्तमान ने
निश्चंत जीवन जीना छोड़ दिया,
और एक दिन किसी अदृश्य व्यथा की मार से
उसने दम तोड़ दिया...''

बुधवार, 27 फ़रवरी 2008
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2008
आंसू का भेद
''व्यथित मन
जब रोक नहीं पाते
दुःख के अतिरेक को
तब
आंसू
पार कर जातेहैं
पलकों की सीमाएं,
या कभी
सुख की तीव्रता
होती है
आनंद के
बिल्कुल समीप
तब
वही आंसू
उन्हीं पलकों की
सीमाओं कोपार कर
और
भावनाओं का
भेद भूलकर
उतर आते है
ह्रदय की गहराईओं में...''
सोमवार, 25 फ़रवरी 2008
सार्थक उद्देश्य
आकाश के विस्तृत आँचल में
लिख देना चाहता हूँ
एक सुंदर सी कविता
जिसे पढ़ सके
दुनिया के सारे
लोग सिर्फ़ एक नजर उठाकर
और पढ़कर भूल जाए
अपने जीवन की सारी नीरसता
सारे बोझ,
खो जाए
ईश्वर की बनाई
इस सुंदर सृष्टी केकण-कण में व्याप्त
आनंद और
सौन्दर्य केअथाह सिंधु में,
और अंतत पा ले
अपने जीवन का
अनमोल मोती रूपी
सार्थक उद्देश्य...